Sunday, January 30, 2011

दो कविताएं और आपकी सेवा में - फिलहाल इतना ही


जड़
सारी गड़बड़ियों की
जड़ है ये व्‍यवस्‍था
इसकी जड़ों को सींचने के लिए
ही करने पड़ते हैं
ढेर सारे प्रपंच
और प्रपंचों के बीच ही
उपजती हैं गड़बड़ियां
तो व्‍यवस्‍था कौन बनाता है
समाज
तो फिर सारी गड़बड़ियों की
जड़ है ये समाज
इसी समाज में तो
उपजते हैं, सारे संताप
ऊँच-नीच, पाप-ताप
लूटमलूट-मारकाट 
तो फिर ये समाज
कौन बनाता है
हम और तुम
तो फिर सारी गड़बड़ियों
की जड़ हैं
हम और तुम
तो किसको सुधारें
स्‍वयं को
समाज को
या व्‍यवस्‍था को 

फ्लार्इ ओवर

ये- ओवरब्रिज
ये -फ्लार्इओवर
ये- अर्धचंद्राकार पुल
मुझे
इसलिए नहीं लुभाते
कि ये प्रगति की
पहचान हैं
या मेरे शहर की
शान हैं
जाम से निजात
दिलाते हैं
हमें ग्लोबल बनाते हैं
वरन, इसलिए भी
सुहाते हैं क्योंकि
ये बहुतों को
भीषण ठंड में
खुले आसमान के नीचे  
न होने का
अहसास दिलाते हैं
और बारिश में  
तो सचमुच  
शैल्टर बन जाते हैं।

Saturday, January 29, 2011

स्वागत है

ब्लॉग जगत के  विद्वतजनों, स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग ‘भिनगढ़ी’ पर. नाम कुछ अजीब लगेगा..... पर क्या करें – मेरे गाँव का नाम है जो उतराखंड के सीमान्त जिले पिथोरागढ़ में है. कहते हैं न कि बचपन की यादें नहीं मरती  - भले ही आदमी मर जाए .. इस दिल्ली महानगर में रहते हुवे – आदमी को आदमी पर चढ़ते हुवे ...रोज रोज जीते हुवे ओर रोज रोज ही मरते हुवे देखता हूँ...... तो बरबस ही गाँव की याद आती रहती है. आज तो कविताएं प्रस्तुत कर रहा हूँ, अब देखना ये है की आप इसे किस प्रकार लेते हैं.




दिन 
क्या क्या नहीं घटता एक दिन में
सुख दुःख - हार जीत - कहा सुनी - मार पीट
रोग शोक - आधी व्याधि - हानि लाभ - जीवन मरण
सब एक दिन में ही तो घटते हैं
सचमुच .... जिंदगी काटना कितना आसन है
पर दिन काटना कितना मुश्किल।

जूता
घायलों के रिश्ते खून में भिगोकर
भाषा का जूता ... दनादन ... मरना चाहता हूँ
इन कम्भाक्तों के सर पर ...
पर इनका सर कहाँ।
इनके तो पड़ते हैं ... पैर जहाँ ...
वहां तो खून ही खून ... आता है नज़र
इनके सर में भर दिया है बारूद ... और....
नफ़रत की गोलियां
बरसाने के लिए

- मेरे कविता संग्रह 'उलझन' से