Wednesday, February 23, 2011

बसंत पर अपने-अपने अंदाज मं काफी कुछ लिखा गया है,लिखा जा रहा है । मेघालय के शिलांग में बसंत के दौरान हवा एक अनूठी प्रकार की अठखेली करती है। बांस से बने घरों या चहारदीवारियों से हवा की टकराहट से उत्‍पन्‍न कम्‍पन जहां दिन में संगीत सी सुरीली लगती है तो वहीं रात के सन्‍नाटे में डराती भी है। कभी कभी तो हवा का वेग इतना अधिक होता है कि खिड़की और दरवाजे जोर से खड़खड़ाने लगते हैं । प्रस्‍तुत है शिलांग में बसंत पर एक कविता

अंत हुआ शीत का
लो आ गया बसंत
बिगड़ैल संत सा
छा गया बसंत
आर्किड के फूलों पर
तितलियों की हलचल
नाच रहे वृक्ष ओढ़
फूलों का ऑंचल
धूल से अबीर ले
पंखुडि़यों से गुलाल
धरा व आकाश में
उड़ा रहा बसंत
चल पड़ी बयार
छोड़ अपना घरबार,द्वार
खिड़की,किवाड़
हर किसी के
खटखटाने लगी
रंग बिरंगे में जेन्सम में
खासी किशोरियां
चर्च को तैयार
मधुर स्वर में
कोरस गाने लगीं
पवन ताल ठोक रहा,
भौंरे उड़ रहे अनन्त
अंत हुआ शीत का
लो गा रहा बसंत

जेन्सम (खासी परिधान)

Friday, February 18, 2011

आपकी सेवा में दो कविताएं प्रस्‍तुत हैं । अभी नया हूं ब्‍लागजगत में इसलिए सबको फालो नहीं कर पा रहा हूं लेकिन आपके सुझाव मेरा मार्गदर्शन अवश्‍य करेंगे इस आकांक्षा के साथ
कवि
क्या है कवि
एक राज-मिस्त्री
जो शब्द-रूपी र्इटों को
विचारों के गारे से
जोड़-जोड़ कर
बनाता है
कविता का महल
या एक दर्जी
जो शब्दों को कपड़े
की तरह काट छांट कर
अलग-अलग डिजाइनों
में संवार कर
रचता है
मनभावन परिधान
या एक बढ़र्इ
जो बेजान
लकड़ी से शब्दों
को रंधे से छील 
करता है निर्मित
विविध संरचनाएं
कविता को
नया रूप देने के लिए
या एक संगतराश   
जो पत्थर से  
कठोर शब्दों
को तराश कर
बनाता है
एक सजीव मूर्ति
एक चित्रकार
जो शब्दों को भावों के
रंग में डुबोकर
मन के कैनवस पर
उकेरता है
अपना अदभुत संसार
क्या है कवि
फुर्र होता कबूतर
निर्झर की झर-झर  
समाज का साबुन
भौरें की गुन-गुन
शब्दों की उधेड़बुन
या सिर्फ -घुन  

2  तेरी -मेरी
दिल्‍ली में भी, दो दिल्‍ली हैं
तेरी दिल्‍ली, मेरी दिल्‍ली
तेरी दिल्‍ली, बहुत बड़ी है
छोटी सी है, मेरी दिल्‍ली,
तेरी दिल्‍ली, मंडी-हाउस
मेरी दिल्‍ली, खारी-बावली
तेरी दिल्‍ली, लाल-किेले सी 
मेरी जमुना, जैसी काली
तेरी दिल्‍ली, एयरपोर्ट सी
मेरी डग्‍गामार, बस वाली
तेरी दिल्‍ली, बड़ी बेशरम
मेरी दिल्‍ली, भोली-भाली
तेरी दिल्‍ली, बहुमंजिली
मेरी दिल्‍ली, झोपड़पट्टी
तेरी दिल्‍ली, एयरकंडीशन
मेरी जैसे, तपती भट्टी
तेरी दिल्‍ली, हरी-भरी है
धूल-धूसरित मेरी दिल्‍ली
तेरी दिल्‍ली, आतंकी है
आतंकित है, मेरी दिल्‍ली
तेरी दिल्‍ली, लेमोजिन सी
फर-फर-फर फर्राटे भरती
मेरी दिल्‍ली, फसें जाम में
ज्‍यों कोई मारुति चलती
तेरी दिल्‍ली, जब सोती है,
तब जगती है, मेरी दिल्‍ली
ठक-ठक, करती पहरा देती
रात काटती, मेरी दिल्‍ली
तेरी दिल्‍ली, दिल वाली है
मेरी दिल्‍ली, से दिल दूर
फिर भी सबका पेट भरे ये
पूंजीपति हो या मजदूर   
दिल्‍ली में भी दो दिल्‍ली हैं
तेरी दिल्‍ली, मेरी दिल्‍ली
तेरी दिल्‍ली, पैसे वाली
मेरी दिल्‍ली, खाली-खाली ।

Sunday, January 30, 2011

दो कविताएं और आपकी सेवा में - फिलहाल इतना ही


जड़
सारी गड़बड़ियों की
जड़ है ये व्‍यवस्‍था
इसकी जड़ों को सींचने के लिए
ही करने पड़ते हैं
ढेर सारे प्रपंच
और प्रपंचों के बीच ही
उपजती हैं गड़बड़ियां
तो व्‍यवस्‍था कौन बनाता है
समाज
तो फिर सारी गड़बड़ियों की
जड़ है ये समाज
इसी समाज में तो
उपजते हैं, सारे संताप
ऊँच-नीच, पाप-ताप
लूटमलूट-मारकाट 
तो फिर ये समाज
कौन बनाता है
हम और तुम
तो फिर सारी गड़बड़ियों
की जड़ हैं
हम और तुम
तो किसको सुधारें
स्‍वयं को
समाज को
या व्‍यवस्‍था को 

फ्लार्इ ओवर

ये- ओवरब्रिज
ये -फ्लार्इओवर
ये- अर्धचंद्राकार पुल
मुझे
इसलिए नहीं लुभाते
कि ये प्रगति की
पहचान हैं
या मेरे शहर की
शान हैं
जाम से निजात
दिलाते हैं
हमें ग्लोबल बनाते हैं
वरन, इसलिए भी
सुहाते हैं क्योंकि
ये बहुतों को
भीषण ठंड में
खुले आसमान के नीचे  
न होने का
अहसास दिलाते हैं
और बारिश में  
तो सचमुच  
शैल्टर बन जाते हैं।

Saturday, January 29, 2011

स्वागत है

ब्लॉग जगत के  विद्वतजनों, स्वागत है आपका मेरे ब्लॉग ‘भिनगढ़ी’ पर. नाम कुछ अजीब लगेगा..... पर क्या करें – मेरे गाँव का नाम है जो उतराखंड के सीमान्त जिले पिथोरागढ़ में है. कहते हैं न कि बचपन की यादें नहीं मरती  - भले ही आदमी मर जाए .. इस दिल्ली महानगर में रहते हुवे – आदमी को आदमी पर चढ़ते हुवे ...रोज रोज जीते हुवे ओर रोज रोज ही मरते हुवे देखता हूँ...... तो बरबस ही गाँव की याद आती रहती है. आज तो कविताएं प्रस्तुत कर रहा हूँ, अब देखना ये है की आप इसे किस प्रकार लेते हैं.




दिन 
क्या क्या नहीं घटता एक दिन में
सुख दुःख - हार जीत - कहा सुनी - मार पीट
रोग शोक - आधी व्याधि - हानि लाभ - जीवन मरण
सब एक दिन में ही तो घटते हैं
सचमुच .... जिंदगी काटना कितना आसन है
पर दिन काटना कितना मुश्किल।

जूता
घायलों के रिश्ते खून में भिगोकर
भाषा का जूता ... दनादन ... मरना चाहता हूँ
इन कम्भाक्तों के सर पर ...
पर इनका सर कहाँ।
इनके तो पड़ते हैं ... पैर जहाँ ...
वहां तो खून ही खून ... आता है नज़र
इनके सर में भर दिया है बारूद ... और....
नफ़रत की गोलियां
बरसाने के लिए

- मेरे कविता संग्रह 'उलझन' से